यह एक सामान्य अनुभव की बात है कि समय के साथ चीजें और अधिक अव्यवस्थित एवं अस्त-व्यक्त होती जाती हैं। इसे उष्मा-गतिकी के दूसरे नियम के रूप में भी जाना जाता है, जिसमें कहा गया हैं कि ब्रह्माण्ड की सम्पूर्ण अव्यवस्था या एनट्रापी समय के साथ सदैव बढ़ती है। इस नियम में सकल अव्यवस्था की बात कही गयी है जिसका तात्पर्य यह है कि यदि किसी तन्त्र की अव्यवस्था बढ़ रही है तो और कोई तन्त्र ऐसा भी हो सकता है जो समय के साथ और अधिक व्यवस्थित हो रहा हो, किन्तु सकल अव्यवस्था बढ़ रही हो। ऐसा ही सजीव प्राणियों के सन्दर्भ में भी पाया जाता है। जीवन को कुछ इस तरह परिभाषित किया जा सकता है कि वह एक ऐसा तन्त्र है जो सुव्यवस्थित होता है और अव्यवस्था की प्रवृत्ति के विरुद्ध कार्य करते हुए प्रजनन द्वारा वंश वृद्धि कर सकता है। अर्थात अपने ही जैसा किन्तु पृथकतः स्वतन्त्र व्यवस्थित तन्त्रों का निर्माण कर सकता है। ऐसा करने के लिए तन्त्र के लिए आवश्यक होगा कि ऊर्जा का उसके व्यवस्थित रूपों जैसे- भोजन, सूर्य-प्रकाश या वि़द्युत ऊर्जा का उपयोग करके अव्यवस्थित ऊर्जा जैसे उष्मा में रूपान्तरित करे। इस प्रकार जीवन-तन्त्र सकल अव्यवस्था को तो बढ़ायेगा किन्तु स्वयं में एवं अपने सन्तानों में व्यवस्था संस्थापित करेगा। हॉकिंग कहते हैं कि यह वैसा ही लगता है जैसे हर नये बच्चे के जन्म के साथ घर और अधिक अव्यवस्थित लगने लगे।प्रत्येक सजीव तन्त्र में दो बातें होती हैं- एक तो कुछ ऐसे अनुदेश जो तन्त्र को बताते हैं कि उसे कैसे कार्य करना है और वंश को कैसे आगे बढ़ाना है, और दूसरी एक ऐसी क्रिया विधि जिसके माध्यम से अनुदेशों का क्रियान्वयन सुनिश्चित होता है।
जैविक तन्त्र में उन्हें क्रमशः जीन एवं मेटावालिज्म कहते हैं। जीन में अनुवांशिक अनुदेश कूटबद्ध होते हैं तथा मेटावालिज्म चयापचयन को कहते हैं जिसमें पेड़-पौधों और जन्तुओं में होने वाली प्रक्रियाएँ भोजन को ऊर्जा में परिवर्तित कर देती हैं जिससे उनकी वृद्धि होती है।हॉकिंग कहते हैं कि खास बात यह है कि इनमें कुछ भी जैविकता नहीं है। उदाहरण के लिए एक कम्प्यूटर वाइरस एक ऐसा प्रोग्राम है जो कम्प्यूटर मेमोरी में अपनी प्रतिकृतियाँ तैयार कर सकता है, इस प्रकार तो यह सजीव तन्त्र की परिभाषा के अनुसार सजीव है। जैविक वाइरस की भाँति यह भी अपूर्ण है क्योंकि जीन की भॉति इसमें अनुदेश तो होते हैं, परन्तु अपना स्वयं का चयाचपयन तन्त्र नहीं होता, बल्कि यह मेजबान कम्प्यूटर अथवा कोशिकीय तन्त्र में अपनी कार्य- योजना के अनुरूप योजित कर चयापचयन सुनिश्चित करता है । कुछ वैज्ञानिक कहते हैं कि वाइरस परजीवी हैं इसलिए सजीव नहीं हैं। इस पर हॉकिंग का तर्क है कि ऐसा तो सभी के साथ है क्योंकि किसी-न-किसी तरीके से सभी प्राणी, पेड़-पौधे एवं अन्य जीव-जन्तु परस्पर आश्रित रहते हैं, इसलिए उनके विचार से कम्प्यूटर वाइरस को सजीव मानना चाहिए । जिन्हें हम जीवन कहते हैं, कार्बन तत्व के शृंखला युक्त अणुओं से निर्मित होता है, जिसमें कुछ अन्य तत्त्व जैसे नाइट्रोजन एवं फास्फोरस का भी समावेश होता है। कुछ लोग सिलिकान तत्व आधारित जीवन की सम्भावनाओं को भी व्यक्त करते हैं, किन्तु कार्बन आधारित जीवन धरती पर सर्वत्र विद्यमान है, जिसका कारण उसके भौतिक एवं रासायनिक गुण हैं जो अन्य तत्वों में नहीं हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रकृति ने सभी भौतिक एवं रासायनिक नियतांकों का दिव्य-संयोग कार्बन के पक्ष में ही कर दिया है अन्यथा QED पैमाना, विद्युत आवेश एवं दिक्-काल के आयामों में रंच मात्र भी परिवर्तन कार्बन परमाणु को बनने ही नहीं देते । इन सब के पीछे प्रकृति की यही मन्शा रही है कि किसी बुद्धिमान प्राणी का जन्म हो और वह प्रकृति की विलक्षणता, उसके सौन्दर्य एवं उसकी विशाल भव्यता का दिग्दर्शन कर सके।हॉकिंग कहते हैं कि एंथ्रोपिक सिद्धान्त की सार्थकता क्या पृथ्वी तक ही सीमित है अथवा पृथ्वी की परिस्थितियों के अनुकूल अन्यत्र व्याप्त परिस्थितियों में भी जीवन सम्भव हो सकता है?
13.80 अरब वर्ष पूर्व जब ब्रह्माण्ड महा विस्फोट से अस्तित्व में आया तब कार्बन तत्त्व तत्काल नहीं बना क्योंकि, ब्रह्माण्ड तब इतना तप्त था कि सम्पूर्ण पदार्थ अपने मौलिक घटकों इलेक्ट्रान, प्रोटान एवं न्यूट्रान के रूप में ही था। प्रारम्भ में प्रोटान एवं न्यूट्रान बराबर संख्या में रहे होंगे। ब्रह्माण्ड विस्तार के साथ–साथ ठण्डा भी होता गया । महा विस्फोट के एक मिनट बाद ब्रह्माण्ड का तापमान घटकर एक अरब डिग्री सेण्टीग्रेड रह गया जो तब भी सूर्य के क्रोड़ के तापमान से लगभग सौ गुना अधिक था। इस तापमान पर न्यूट्रान क्षयित होकर और अधिक प्रोटान बनाने लगे। यदि केवल यही हो तो सभी पदार्थ हाइड्रोजन परमाणु के रूप में ही होते जिनके नाभिक में एक प्रोटान होता है और कक्षा में एक इलेक्ट्रान और इस प्रकार सृष्टि का क्रम रुक जाता, परन्तु नहीं। कुछ न्यूट्रान प्रोटानों से टकराये और अगले तत्त्व हिलियम का निर्माण किये जिनके नाभिक में दो न्यूट्रान एवं दो प्रोटान तथा कक्षा में दो इलेक्ट्रान होते हैं, किन्तु इससे बड़े परमाणु जैसे कार्बन या ऑक्सीजन प्रारम्भिक ब्रह्माण्ड में नहीं बन पाये थे, इसलिए यह सोचना कि प्रारम्भिक ब्रह्माण्ड में केवल हाइड्रोजन एवं हीलियम आधारित जीवन रहा होगा, सम्भव नहीं है । इसके अतिरिक्त प्रारम्भिक ब्रह्माण्ड तप्त भी बहुत अधिक था जो जीवन के पनपने के लिए अनुकूल नहीं था। ब्रह्माण्ड फैलता गया और ठण्डा होता गया। इसमें कुछ क्षेत्र सघन रहे होंगे जहाँ प्रसार गति मन्द रही होगी और पदार्थ ने आपसी गुरुत्वाकर्षण से आबद्ध संरचनाओं का निर्माण किया होगा जिसे हम आकाशगंगा व तारे कहते हैं, किन्तु ऐसा महाविस्फोट के 2 अरब वर्षबाद हुआ।
प्रारम्भिक ब्रह्माण्ड के कुछ सितारे सूर्य से काफी बड़े रहे होंगे जिसमें नाभिकीय दहन–दर अधिक रही होगी और वे दो–तीन अरब वर्षों में ही अपने अन्तिम चरण में सुरपनोवा बन गये होंगे जिसमें होने वाले विस्फोट के समय भारी तत्वों जैसे कार्बन, ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, फास्फोरस, आइरन आदि का निर्माण हुआ होगा। सुपरनोवा विस्फोटों में ये तत्त्व दिक में बिखर गये होंगे और अगली पीढ़ी के तारों के लिए निर्माण सामग्री बने होंगे । यह अनुमान है कि पाँच सितारों में कम–से– कम एक सितारा ऐसा था जिसके तारक– मंडल में पृथ्वी जैसे ग्रह हैं और उस सितारे से उतनी दूरी पर परिक्रमा कर रहे हैं जिससे उन्हें उचित उष्मा की मात्रा मिल रही होगी जिससे वहाँ जीवन के आसार होंगे।
हमारा अपना सौर–मण्डल चार अरब पचास करोड़ वर्ष पूर्व बना तथा हमारी पृथ्वी में भारी तत्त्व जैसे कार्बन एवं ऑक्सीजन आदि उसके निर्माण के समय ही आ गये थे जिनमें से कुछ तत्त्वों के परमाणु सुव्यवस्थित होकर DNA अणु बनाये। DNA अणु दोहरी कुण्डलिनी(Double Helix) के आकार जैसा होता है जिसकी खोज 1950 के दशक में फांसिस क्रिक एवं जेम्स वाटसन ने कैम्ब्रिज में किया। हेलिक्स की दोनों शृंखलाओं को जोड़ने का काम न्यूक्लीइक अम्ल के जोड़े करते हैं। चार तरह के न्यूक्लीइक अम्ल होते हैं : एडेनिन, साइटोसिन, गुआनिन एवं थायामीन। एक शृंखला की एडेनिन दूसरी शृंखला के थायामीन से ही जोड़ा बनाती है। इसी प्रकार साइटोसिन दूसरी शृंखला की गुआनिन से ही जोड़ा बनाती हैं। इस प्रकार एक शृंखला पर न्यूक्लीइक अम्लों का सीक्वेन्स दूसरी शृंखला के एक विशिष्ट एवं पूरक सीक्वेन्स को विनिश्चित करता है। दोनों शृंखलायें पृथक भी हो सकती हैं। इस प्रकार DNA अणु अपने न्यूक्लीइक अम्लों के सीक्वेन्सों में निहित आनुवांशिक सन्देशों को पुनः सृजित कर सकते हैं। सीक्वेन्सके खण्ड भी प्रोटीनों एवं अन्य रसायनों के निर्माण में प्रयुक्त हो सकते हैं जो सीक्वेन्समें कूटबद्ध अनुदेशों का क्रियान्वयन सुनिश्चितकर सकते हैं और DNA के पुनः निर्माण के लिए निर्माण सामग्री एकत्रित कर सकते हैं।
सर्वप्रथम DNA अणु कैसे बने? इसका उत्तर आज भी निश्चित रूप से किसी के पास नहीं है। कई सम्भावनाएँ व्यक्त की गयी हैं, जिनमें एक यह भी है कि जीवन के बीज ब्रह्माण्ड में विद्यमान हैं अैर वे उल्कापिण्डों, धूमकेतुओं तथा सौर प्रवाहों के माध्यम से इस धरती पर आये एवं अनुकूल वातावरण पाकर जिसमें तरल जल का होना प्रमुख था, विकसित हुए। इस बात के साक्ष्य मिले हैं कि धरती पर जीवन हेडियन काल के अन्तिम चरण में लगभग 4 अरब वर्ष पूर्व एकल कोशिकीय रूप में विद्यमान था। एक बड़ा सवाल यह है कि एक वैज्ञानिक अनुमान के अनुसार जीवन के विकसित होने में 10 अरब वर्ष लगने चाहिए तो हमारे सूर्य एवं सौर- मण्डल की सम्पूर्ण आयु यदि मात्र 4 अरब 50 करोड़ वर्ष ही है तो धरती के अस्तित्व में आने के पचास करोड़ वर्षों में ही जीवन के प्रथम चिन्ह कैसे यहाँ दिखने लगे? तो क्या ऐसा तो नहीं कि पृथ्वी की निर्माण सामग्री में पहले से ही जीवन के बीज विद्यमान रहे जो और अनुकूल अवसर देखकर पनप गये। हॉकिंग भी कहते हैं कि धरती पर उसके अस्तित्व में आने के बाद शीघ्र ही जीवन का प्रस्फुटित होना यह संकेत देता है कि अनुकूल परिस्थितियों में भारी तत्त्व जैसे कार्बन एवं ऑक्सीजन आदि उसके निर्माण के समय ही आ गये थे जिनमें से कुछ तत्त्वों के परमाणु सुव्यवस्थित होकर DNA अणु बनाये। DNA अणु दोहरी कुण्डलिनी (Double Helix) के आकार जैसा होता है जिसकी खोज 1950 के दशक में फांसिस क्रिक एवं जेम्सवाटसन ने कैम्ब्रिज में किया। हेलिक्स की दोनों शृंखलाओं को जोड़ने का काम न्यूक्लीइक अम्लके जोड़े करते हैं। चार तरह के न्यूक्लीइक अम्ल होते हैं : एडेनिन, साइटोसिन, गुआनिन एवं थायामीन। एक शृंखला की एडेनिन दूसरी शृंखला के थायामीन से ही जोड़ा बनाती है। इसी प्रकार साइटोसिन दूसरी शृंखला की गुआनिन से ही जोड़ा बनाती हैं। इस प्रकार एक शृंखला पर न्यूक्लीइक अम्लों का सीक्वेन्स दूसरी शृंखला के एक विशिष्ट एवं पूरक सीक्वेन्स को विनिश्चित करता है। दोनों शृंखलायें पृथक भी हो सकती हैं। इस प्रकार DNA अणु अपने न्यूक्लीइक अम्लों के सीक्वेन्सों में निहित आनुवांशिक सन्देशों को पुनः सृजित कर सकते हैं। सीक्वेन्स के खण्ड भी प्रोटीनों एवं अन्य रसायनों के निर्माण में प्रयुक्त हो सकते हैं जो सीक्वेन्स में कूटबद्ध अनुदेशों का क्रियान्वयन सुनिश्चित कर सकते हैं और DNA के पुनः निर्माण के लिए निर्माण सामग्री एक त्रितकर सकते हैं।
जैविक क्रम-विकास की प्रक्रिया प्रारम्भ में अत्यन्त मन्द रही होगी। एकल कोशिकीय से बहु कोशिकीय जीवन के विकास में ढाई अरब वर्ष लग गये, परन्तु उसके पश्चात एक अरब वर्ष में ही सर्वप्रथम मछलियाँ विकसित हुईें और उनसे स्तनधारी जीव विकसित हुए। क्रम-विकास की गति और अधिक तेज हुई और कुछ ही करोड़ वर्षों में एक विस्फोट की तरह अन्यान्य प्रजातियाँ विकसित हुईं जिसमें अन्ततः मानव प्रजाति विकसित हुई । वस्तुतः प्रारम्भिक स्तनधारियों में से सभी अंग जो मानवों में हैं किसी-न-किसी रूप में उनकी आवश्यकतनुरूप विद्यमान थे, उनमें केवल बारीकी से किये गये संशोधन मात्रा से ही मानव प्रजाति विकसित हुई, किन्तु मानव प्रजाति के विकास में एक ऐसा मोड़ भी आया जब सूचनाओं, सन्देशों अथवा विचारों का हस्तान्तरण अनुवांशिक तौर पर न होकर अन्य संसाधनों से होने लगा जिसका सृजन मानव ने स्वयं अपने मस्तिष्क से किया। सूचनाएँ अथवा ज्ञान की अभिव्यक्ति को प्रसारित करने वाले साधनों में भाषा प्रमुख है जिसमें लिपिबद्ध भाषा तो सर्वोपरि है। इसका अर्थ यह हुआ कि पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तान्तरित होने वाले ज्ञान को प्रसारित करने के अनुवांशिक तरीके से इतर अन्य तरीके भी मानवों ने विकसित कर लिये जो अन्य जैविक प्रजातियाँ नहीं कर पायीं और इस बीच इतना ज्ञान अर्जित हो गया जितना पिछले कई अरब वर्षों में भी नहीं हुआ। पर साथ ही पिछले 10,000 वर्षों में DNA के जैविक क्रम-विकास में भी संज्ञान योग्य परिवर्तन देखे गये हैं। हॉकिंग कहते हैं कि लम्बी अवधि तक अपनी वैज्ञानिक वृत्ति में प्राप्त ब्रह्माण्ड से सम्बन्धित ज्ञान मैं अपनी लिखित सामग्री के माध्यम से वैज्ञानिक समुदाय के साथ-साथ जन-जन तक पहुँचा रहा हूँ जो उन्हें भविष्य में भी उपलब्ध रहेगा, परन्तु यह ज्ञान अनुवांशिक ढंग से जीव के द्वारा नहीं पहुँचाया जा रहा है। इसी तरह विश्व में समाचार पत्रों, पुस्तकों, पत्रिकाओं, रेडियो एवं टी.वी. आदि संसाधनों से लगातार सूचनाओं का सम्प्रेक्षण किया जा रहा है जिसका अनुवांशिक तौर पर हस्तान्तरित ज्ञान से उनका कोई सम्बन्ध नहीं है।
पुरुष के शुक्राणु अथवा महिलाओं की अण्ड कोशिकाओं के DNA में न्यूक्लीइक अम्लों के लगभग तीन अरब झारक युग्म होते हैं, किन्तु अधिकांश अनुवांशिक सन्देश जो इन जीन सीक्वेन्सों मे संगृहीत होते हैं, उनका कोई विशिष्ट उपयोग ज्ञात नहीं है, इसलिए वैज्ञानिक उन्हें निष्प्रयोज्य जीन (Junk) अथवा स्वार्थी (Selfish) जीन कहते हैं। उपयोगी सूचनाएँ हमारे जीन में लगभग 10 करोड़ बिट बतायी जाती हैं। एक बिट के बराबर सूचनाएँ “हॉ” या “नहीं” उत्तर के ही समतुल्य होती हैं। इसके विपरीत एक उपन्यास में 20 लाख बिट सूचनाओं के समतुल्य सामग्री हो सकती है। एक बड़े पुस्तकालय में 50 लाख पुस्तकें हो सकती हैं जो लगभग 10 खरब बिट के बराबर होंगी। पुस्तकों के माध्यम से या इण्टरनेट से दी जाने वाली सूचनाएँ, उन सूचनाओं से जो DNA के माध्यम से हस्तान्तरित होती हैं, से एक लाख गुनी अधिक हैं। हमें आधुनिक मानव बनने में लाखों वर्ष लग गये क्योंकि DNA में उपयोगी सूचनाओं का समावेश होना अथवा विद्यमान सूचनाओं में परिवर्तन होना क्रम-विकास की एक बहुत ही मन्द प्रक्रिया है।
हॉकिंग मानवों के उस आक्रामकता का भी जिक्र करते हैं जो उसके गुफाओं में रहने के दिनों से आज तक उसमें कायम है। पूर्वकाल की इस प्रवृत्ति को स्वरक्षण के लक्षणों में गिना जाता है जैसा कि आज भी विभिन्न प्राणियों में यह विद्यमान है और प्राकृतिक तौर पर भविष्य में भी रहेगा, परन्तु मानवों ने अपने बचाव के लिए जो सामरिक संसाधन एकत्रित कर लिये हैं उनके उपयोग से तो सम्पूर्ण मानव जाति के नष्ट होने का ही खतरा बढ़ गया है। एक नाभिकीय युद्ध पृथ्वी से प्राणियों का विनाश कर सकता है। इसके अतिरिक्त युद्ध में विषाणुओं का प्रयोग भी किसी समय किया जा सकता है जो मानवों को सदैव के लिए अपंग बना सकता है अथवा मार सकता है। धरती पर प्राकृतिक आपदाएँ पहले भी आती रही हैं और आगे भी आती रहेंगी, किन्तु मानव प्रेरित आपदाएँ जैसे ग्रीन-हाउस गैसों का उत्सरण एक अत्यन्त विनाश कारी स्थिति में हमें ला सकता है। हॉकिंग कहते हैं कि और अधिक वुद्धिमान तथा संस्कारी बनाने के लिए डार्बिन के क्रम-विकास की प्रतीक्षा करने का समय अब मानवों के पास नहीं है। अब वे एक ऐसे दौर से गुजर रहे हैं जिसमें वे अपने DNA को परिष्कृत कर अथवा बदलकर क्रम-विकास की योजना स्वयं बनायेंगे। DNA की मैपिंग की जा चुकी है, जिसका अर्थ है कि जीवन की किताब अब पढ़ी जा सकती है जिसमें त्रुटि निवारण किया जा सकता है तथा आवश्यकतानुरूप परिवर्तन अथवा संशोधन भी किया जा सकता है। प्रारम्भ में यह प्रक्रिया अनुवांशिक रोगों जैसे सिस्टिक फाइब्रोसिस (Cystic Fibrosis) जो एक गम्भीर जन्मजात बीमारी है जिससे शरीर के कुछ अंग ठीक तरह से काम नहीं करते, या मस्कुलर डिस्ट्राफी (Muscular Dystrophy) जिसमें व्यक्ति की माँस-पेशियाँ निरन्तर कमजोर होती जाती हैं, केवल एक जीन से ही नियन्त्रित होते हैं, पर प्रयुक्त की जायेगी। मानव के दूसरे गुण जैसे उसकी बुद्धिमत्ता कदाचित कई जीनों से नियन्त्रित होते हैं जिन्हें ढूँढ पाना और उनमें आपसी सम्बन्धों को समझ पाना काफी कठिन है। हॉकिंग ने अनुवांशिक विज्ञान की प्रगति को देखते हुए विश्वास व्यक्त किया कि कदाचित इसी सदी में मनुष्य अपनी बुद्धि एवं नैसर्गिंक सहज वृत्तियों जैसे गुणों को सम्बर्धित करने के तरीके ढूँढ़ लेगा।
हॉकिंग ने साथ ही यह आशंका भी व्यक्त की है कि उनमें भी कुछ लोग अपनी स्वाभाविक आक्रामक वृत्तियों के अनुरूप अतिमानवी गुणों से सम्पन्न मानवों की प्रजातियों का निर्माण करेंगे जो अति बुद्धिमान रोग विहीन एवं दीर्घायु होंगे। इससे दूसरे तरह की समस्याएँ समाज में जन्म लेंगी जिनमें अविकसित मानव या तो समाप्त हो जायगा या सामाजिक दृष्टि से महत्त्वहीन हो जायगा। केवल सक्षम एवं शक्ति शाली ही बचेंगे । डार्विन का सिद्धान्त यहाँ भी काम करेगा।
यदि मानव खुद को अपने ही हाथों तबाह न कर ले तो आवश्यकता होगी भविष्य में अन्य ग्रहों पर बस्तियाँ बसाने की। हॉकिंग का मानना है कि दिक की लम्बी दूरियों की यात्राएँ DNA आधारित जीवन के लिए अत्यन्त कठिन होगी क्योंकि इनका जीवनकाल यात्रा में लगने वाले समय को देखते हुए अत्यन्त अल्प है। आपेक्षिकता के सिद्धान्त के अनुसार कोई भी वस्तु प्रकाश-गति से अधिक तेज नहीं चल सकती। इस प्रकार यदि हम प्रकाश-गति से चलें, जो असम्भव है, तो अपने सबसे करीब 4 प्रकाश वर्ष दूर तारे तक जाने और आने में ही हमें 8 वर्ष लग जायेंगे और अपनी आकाश गंगा के मध्य तक जाने-आने में तो 50,000 वर्ष का समय लग जायगा। विज्ञान कथाओं में इस तरह की यात्राओं को दिक्-वक्रता अथवा अतिरिक्त आयामों के सहारे कम समय में ही करने की कल्पनाएँ की जाती रही हैं किन्तु हॉकिंग का मानना है कि सैद्धान्तिक तौर पर इसकी थोड़ी बहुत सम्भावना यदि है तो भी व्यावहारिक रूप से ऐसा कभी सम्भव नहीं हो सकेगा। सैद्धान्तिक रूप से आपेक्षिकता के सिद्धान्त में यह निहित है कि यदि कोई प्रकाश गति से तेज गतिमान हो सकता है तो वह काल के अतीत में भी जा सकता है जिससे अन्यान्य समस्याएँ उपस्थित हो जायेंगी। इसी तरह भविष्य के लोग हमारे वर्तमान में आ सकते हैं। यदि ऐसा होता है तो कल्पना कीजिये कि स्थिति कितनी विचित्र एवं असहज होगी।
यह सम्भव है कि अनुवांशिक अभियन्त्रण की मदद से DNA आधारित जीवन को अनन्त काल तक दीर्घ कालिक बनाया जा सके या कुछ हजार या लाख वर्षों तक का जीवन-काल नियत हो सके, परन्तु हॉकिंग के अनुसार इसमें भी एक आसान रास्ता है जो हमारे मौजूदा तकनीकी क्षमताओं के अधीन है। क्यों न दिक में मशीनें भेजी जाँय जो व्योम यात्राओं के अनुरूप बनी हों और दीर्घ जीवी हों? जब वे किसी तारक मण्डल के किसी ग्रह पर पहुँचें तो वहाँ उतर कर, वहाँ धातुओं, खनिजों आदि की तलाश कर और अधिक दूसरी मशीनों का निर्माण करें और नव निर्मित मशीनें अन्य तारक मण्डलों में भेज दी जायँ। ये मशीनें एक नये तरह के जीवन का रूप होंगी जो विशाल जैव-रासायनिक अणुओं पर आधारितन होकर मशीनों के कल-पुर्जों एवं एलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से युक्त होगा। यह मशीनी जीवन DNA आधारित जीवन का स्थान ठीक उसी तरह ले लेगा जैसे DNA ने प्रारम्भिक जीवन के घटकों को विस्थापित कर उनका स्थान ले लिया था।
यदि हम अपनी आकाश गंगा में ही तलाश करें तो सवाल यह है कि परग्रही जीवन के मिलने की सम्भावनाएँ कितनी हैं?
यदि धरती पर जीवन के पनपने का काल पैमाना सही है तो ब्रह्माण्ड में तो अरबों-खरबों तारक मण्डल होंगे जो धरती से भी कई अरब वर्ष पुराने होंगे। वहाँ का जीवन अत्यन्त उन्नत एवं बुद्धिमत्तायुक्त होगा जिन्हें ब्रह्माण्ड व्यापी यात्राओं का भी अनुभव होगा। पर इन सभी सम्भावनाओं के मध्य एक सवाल यह भी है कि यदि अन्यत्र जीवन है और अधिक वृद्धिमान प्राणी विद्यमान हैं तो आज तक उन्होंने हम से सर्म्पक क्यों नहीं किया? उड़न तश्तरियों के दिखने की जानकारी धरती के लगभग सभी भागों से समाचार पत्रों एवं अन्य सूचना-माध्यमों से मिलती रहती है, परन्तु प्रामाणिक तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता। हॉकिंग कहते हैं कि परग्रहियों का होना सम्भव तो है,पर उनसे मिलना बहुत अधिक रुचिकर नहीं होगा।
तो धरती पर कोई आया क्यों नहीं? क्या जीवन कहीं और है ही नहीं या व्योम यात्रा की कठिनाइयों के कारण हमारी तरह वे भी बहुत दूर तक जाने की स्थिति में नहीं हैं? सौर-मण्डल में तो उन्नत जीवन के आसार नहीं दिखते। अधिकतर वैज्ञानिक यह मानते हैं कि जैविक क्रम-विकास एक सांयोगिक प्रक्रिया है जिसकी असंख्य सम्भावनाओं में बुद्धिमान प्राणी का विकसित होना मात्रा एक सम्भावना है। एक ऐसी सम्भावना जो बहुत ही क्षीण है।
यह अभी स्पष्ट नहीं है कि बुद्धि जैविक क्रम-विकास में दीर्घकाल तक कायम रहने वाली वृत्ति है या नहीं। बैक्टीरिया एवं अन्य एकल कोशिकीय जीव अन्यजीवों के समाप्त हो जाने के बाद भी जीवित बने रह सकते हैं। अन्तरतारीय आकाश में भी बैक्टीरिया जीवित रह सकते हैं और विकिरण से गति पाकर अनन्त काल तक अनन्त दूरियों की यात्राएँ कर सकते हैं, किन्तु धरती पर एकल कोशिकीय जीवों से बहुकोशिकीय जीवों तक की विकास-यात्रा में ढाई अरब वर्ष लग गये। बहुकोशिकीय जीवन ही बुद्धियुक्त जीवन का अनिवार्य चरण है। इसलिए हॉकिंग का मानना है कि आकाश गंगा में अन्य तरह का जीवन तो सम्भव हो सकता है, किन्तु बुद्धियुक्त जीवन के होने की सम्भावना नगण्य है।
Author
Shri Chandra Mani Singh (C.M. Singh) is an Ex-Member, Public Service Commission, UP. He was born in 4 June,1949 in village Kaithi, Dist Varanasi, UP. He was graduated and post graduated in Science from Prayagraj University, Prayagaraj, UP. He joined Provincial Co-op Service in 1975. Worked in different capacities. Received 5 times Best Productivity Awards from National Productity Council, GOI and Jawaharlal Lal Nehru Excellent Award while working in State Warehousing Corporation, UP. He was retired in June,2011 from Public Service Commission, UP as Member.
Thereafter, he has been self-engaged in study of Vedas and Vedanta in the light of modern Scientific reasoning and thoughts and trying to delve out the deeper messages hidden in them. The books he wrote: Ved, Vigyan Avm Brahmand; AdbhutBrahmand; AseemShristi ;Prithvi; Bharat Avm Vishwa Bhugol; Stephen Hawking: Anant Yatri