“बेटी को पढ़ाओ, उन्हें मारोगे तो बहू कहां से लाओगे?” – ये शब्द हैं मनीषा के, जिन्होंने हरियाणा के किलोई गांव की संकीर्ण सोच और सामाजिक बेड़ियों को तोड़ते हुए 38वें राष्ट्रीय खेलों में नेटबॉल का स्वर्ण पदक जीतकर अपनी मेहनत और संघर्ष को परिभाषित किया। उनका सफर केवल खेल तक सीमित नहीं था, बल्कि यह एक संघर्ष, साहस और बदलाव की कहानी है—एक ऐसी कहानी, जो उन तमाम लड़कियों के लिए प्रेरणा है, जिन्हें समाज ने कभी आगे बढ़ने से रोका था।
हरियाणा का किलोई गांव, जहाँ बेटियों को जन्म लेने से पहले ही खत्म कर दिया जाता है। जहाँ उन्हें बोझ समझा जाता है, उनके सपनों को कुचल दिया जाता है, और अगर जन्म ले भी लें, तो शिक्षा और खेलों से दूर रखने की हर संभव कोशिश की जाती है।
इस माहौल में मनीषा का जन्म हुआ। मनीषा बताती हैं, जब उन्होंने पहली बार नेटबॉल खेलना शुरू किया, तो पूरे गांव में कानाफूसी होने लगी—“लड़की होकर खेल खेलेगी? सूट-सलवार छोड़कर टी-शर्ट और लोअर पहनेगी?” लेकिन मनीषा के लिए ये बातें मायने नहीं रखती थीं। उनके लिए मायने रखता था सिर्फ एक सपना—खेल के मैदान में देश के लिए जीत हासिल करना।
हर संघर्ष की कहानी में कोई न कोई ऐसा इंसान होता है, जो उम्मीद की किरण बनता है। मनीषा के लिए यह किरदार उनके पिता ने निभाया।
जब पूरा गांव उनके खेल के खिलाफ था, जब समाज उन्हें “लड़कियों के खेलकूद” पर ताने दे रहा था, तब उनके पिता उनकी सबसे मजबूत ढाल बने। उन्होंने कहा,“सिर्फ मुझ पर भरोसा रख, और किसी की ज़रूरत नहीं। मैं खड़ा हूँ तेरे लिए।”
पिता की इन बातों ने मनीषा को नई हिम्मत दी। वह हर ताने, हर बंदिश, हर आलोचना को नजरअंदाज करती रहीं और अपने खेल में आगे बढ़ती गईं।
आज जब मनीषा राष्ट्रीय खेलों में स्वर्ण पदक के साथ खड़ी हैं, तो वह हर उस लड़की के लिए प्रेरणा हैं, जिसे समाज ने यह कहकर दबाने की कोशिश की कि “लड़कियाँ ज्यादा कुछ नहीं कर सकतीं।”
जीत के बाद, मनीषा ने गर्व से कहा, “बेटियाँ उतनी बुरी नहीं होतीं, जितना समाज उन्हें समझता है। अगर उन्हें उड़ने का मौका दिया जाए, तो वे आसमान छू सकती हैं।”
मनीषा की यह जीत सिर्फ एक पदक नहीं है, यह उन तमाम लड़कियों के लिए एक संदेश है:“डरना नहीं, लड़ना सीखो। समाज की बेड़ियाँ तभी टूटेंगी, जब तुम अपने हौसले को उड़ान दोगी।”