राम मन्दिर का विरोध : सेकुलर-लिबरल, वामपंथियों के उजागर होते कारनामे

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जैसे-जैसे राममंदिर निर्माण का पुनीत कार्य आगे बढ़ रहा है, वैसे-वैसे राम मंदिर के आगे दशकों से रोड़े अटकाने वाले तथाकथित सेकुलरवादी, लिबरल, वामपंथी गिरोहों के कुटिल कारनामे भी जनता के सामने उजागर हो रहे हैं। भारतीय सनातन संस्कृति, परम्परा से हमेशा से परहेज रखने वाले, या यह कहें कि नफरत करने वाले इन गिरोहों का इतिहास ही यह रहा है- एक झूठ को सौ बार बोलकर सच बनाने का दुष्प्रयास। बाबरी ढाँचे विवाद में भी एक पार्टी विशेष तथा उससे जुड़े संगठनों-नेताओं को दोषी ठहराने, विलेन बनाकर कठघरे में खड़े करने की पुरजोर कोशिशें 1992 से ही जारी रही हैं। लेकिन विडम्बना यह है कि ढाँचे के ध्वंस के पीछे छिपे वे कारण, जिनमें सेकुलर-लिबरल, वामपंथी-जेहादी गिरोह की अहम भूमिका थी, उन कारणों का अब तक भूलकर भी उल्लेख नहीं किया जाता था। निष्पक्ष रिर्पोंटिंग का दम भरने वाला प्रिंट व इलेक्ट्राॅनिक मीडिया भी कहीं न कहीं उन कारणों के पीछे के सच का सामना करने से कतराता था। बल्कि यूं कहें कि मीडिया का एक वर्ग झूठ व प्रपंच भरी खबरों के प्रसारण के जरिए हिन्दूवादी व राष्ट्रवादी संगठनों को बदनाम करने में एड़ी-चोटी का जोर लगाए रहता था, तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। वह तो अब जबकि सोशल मीडिया के जरिए सूचनाओं का जाल फैला है, तब इनके झूठ-प्रपंचों की पोल खुलने लगी है, तो अब ऐसे राष्ट्रद्रोही तत्व बैकफुट पर नजर आने लगे हैं।

फिर भी जनता को बार-बार गुमराह करने के लिए इनके कुत्सित इरादे जाहिर होते रहते हैं। इसलिए यहाँ उन कारणों की चर्चा करना जरूरी हो जाता है ताकि आम जनता को सच्चाई और तथ्यों से रूबरू कराया जा सके। कथित धर्मनिरपेक्षता व मानवता के ठेकेदारों की वास्तविकता को अयोध्या आंदोलन के दौरान पत्रकार मोहम्मद असलम हादी ने ‘अमर उजाला’ में प्रकाशित अपने लेख की इन पंक्तियों में व्यक्त किया था –
मुस्लिम कट्टरवादिता की अतिशय उग्रवादिता का ही नतीजा है हिन्दू साम्प्रदायिकता। . . . . मुस्लिम राजनीतिज्ञों तथा उर्दू प्रेस के अलावा तथाकथित मानवाधिकारवादियों व धर्मनिरपेक्षतावादियों ने भी हिन्दू-मुस्लिम सम्बन्धों को बिगाड़ने में कम भूमिका नहीं निभाई है। मुस्लिम साम्प्रदायिकता की अनदेखी करना और हिन्दू प्रतिक्रिया को जोर-शोर से घातक बताना, मुस्लिम लीग की तारीफ करना और भाजपा को गरियाना, इसी दोगलेपन और दोमुँहे चरित्र ने हिन्दू साम्प्रदायिकता को पैदा करने और परवान चढ़ाने में रोल अदा किया है। अफसोस है कि मुस्लिम भी ऐसे ही दुर्जनों को अपना मसीहा मानते हैं। मुलायम सिंह, वी.पी. सिंह और वामपंथी नेताओं को अपना हितैषी मानने के पीछे यही मानसिकता है। यही मानसिकता कभी खालिस्तानी आतंकवाद की निन्दा नहीं करती। कश्मीर और असम में निर्दोष, निहत्थे हिन्दुओं के सामूहिक नरसंहार पर क्षुब्ध नहीं होती। उल्फाइयों, तमिल मुक्ति चीतों और इस्लामी जमातों की देशतोड़क गतिविधियों पर चिन्तित नहीं दिखाई देती
अयोध्या आन्दोलन के दौरान भी इन लोगों का ऐसा ही रवैया रहा, जैसा आज नजर आ रहा है। बाबरी ढाँचे को ढहाने के लिए भाजपा, आरएसएस व अन्य हिन्दू संगठनों को जोर-शोर से दोषी ठहराने वाले इन दलों का कच्चा चिट्ठा एक ऐसे लेख के माध्यम से सामने आ जाता है जो स्वयं वामपंथी आंदोलन से जुड़े वयोवृद्ध स्वतंत्रता सेनानी आफताब अहमद ने लिखा था (देखें, ‘आखिर दोषी कौन है?’ अमर उजाला, 8 अक्टूबर 1993) वह लिखते हैं –
आरम्भ में भाजपा नेताओं की नीति सद्भावना की थी। वे मुस्लिम नेताओं से ढाँचे को पंचकोसी के बाहर कहीं भी स्थानांतरित करने को कह रहे थे। झगड़ा मस्जिद का नहीं है, बल्कि उस स्थान का है जहाँ ढाँचा खड़ा है और हिन्दुओं की आस्था है कि वही स्थान राम जन्मभूमि है। अति उग्रवादी हिन्दू भी ढाँचा गिराने की बात नहीं कह रहे थे। किन्तु प्रधानमंत्री के साथ समझौता वार्ता के समय मुस्लिम नेताओं ने घोषणा की कि जहाँ एक बार मस्जिद का निर्माण हो गया, वह हमेशा मस्जिद का ही स्थान रहेगा। इसके बाद उन्होंने सुझाव रखा कि हिन्दू यह प्रमाणित करें कि वहां कभी कोई मन्दिर था। जब हिन्दू नेताओं ने अपने पक्ष में साक्ष्य प्रस्तुत किए तो उनको अज्ञात कारणवश मुस्लिम नेताओं ने अमान्य कर दिया।…………. हिन्दुओं को सबसे अधिक उत्तेजित किया वामपंथियों के व्यंग्यों ने। ……… एक प्रधानमंत्री करबद्ध, एक इमाम के आगे घुटने टेक देता है। एक मुख्यमंत्री कारसेवकों पर गोली बरसाता है। बुद्धिजीवी राम को कल्पित बताते हैं और कहते हैं कि अयोध्या कहीं अफगानिस्तान में थी। इसका अर्थ तो यह हुआ कि हिन्दुओं का दावा झूठा है। ऐसे में जड़ बुद्धिजीवियों ने हिन्दुओं को धकिया कर एक ओर खड़ा कर दिया। आहत और हताश हिन्दुओं को चोट करने तथा उस ढाँचे को ध्वस्त करने के लिए बाध्य कर दिया जो उनकी गुलामी और अपमान का प्रतीक था।
यहीं तक गनीमत नहीं रही। तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने ढाँचे को मस्जिद बताकर और उसी स्थान पर उसके पुनर्निमाण की घोषणा करके आग पर पेट्रोल छिड़कने का काम किया। (इस बात की पूरी सम्भावना है कि ऐसा 10, जनपथ के दबाव में ही किया गया होगा।) पूरे विश्व में यह संदेश गया कि मस्जिद तोड़ दी गयी है। जबकि हकीकत यह थी कि वहाँ 1936 से कोई नमाज अदा नहीं की गयी थी, बल्कि पूजा-अर्चना हो रही थी। विदेशों तक में हिन्दुओं व हिन्दुत्व के विरोध में बड़े पैमाने पर दुष्प्रचार किया गया। विश्व भर में हिन्दू विरोधी प्रदर्शन हुए। कश्मीर घाटी के साथ ही पाकिस्तान, बांग्लादेश जैसे देशों में सैकड़ों हिन्दू मंदिर ध्वस्त कर दिए गए। परन्तु किसी ने भी भर्त्सना तो दूर, अफसोस के दो शब्द भी जाहिर नहीं किए। धर्मनिरपेक्षतावादी क्या बताएंगे कि उनकी नजरों में यही ‘धर्मनिरपेक्षता’ है?
कुराने-पाक में स्पष्ट लिखा है कि किसी अन्य धर्मस्थल को तोड़कर बनाई गई मस्जिद में की गई इबादत अल्लाह को कबूल नहीं होती। फिर यहाँ तो मन्दिर को ध्वस्त कर ढाँचा खड़ा करने के सारे साक्ष्य थे। ब्रिटिश इतिहासकार कनिंघम ने भी अपने गजेटियर में लिखा है- “अयोध्या स्थित राम मन्दिर को बचाने के लिए हिन्दुओं ने बाबर की सेनाओं का जबरदस्त प्रतिरोध किया। लगभग 1 लाख 74 हजार हिन्दुओं की लाशें गिरने के बाद ही बाबर का सेनापति मीर बाँकी उस मन्दिर को तोप से उड़ाने में सफल हो सका।
गौरतलब है कि पिछले 400 सालों से मन्दिर को वापस प्राप्त करने के लिए हिन्दुओं ने 76 बार प्रयास किए जिसमें साढ़े तीन लाख हिन्दुओं ने जान गंवायी। परन्तु मुस्लिम नेताओं को इन साक्ष्यों की याद दिलाने पर वे चुप्पी साध गए। यह तो अब जाकर उजागर हो रहा है कि धूर्त वामपंथियों और कुबुद्धिजीवियों ने मुस्लिम नेताओं को अपनी बात पर अड़े रहने के लिए उकसाया था।
बाबरी ढाँचे के ढहने के बाद, 7 दिसम्बर 19922 को मलबे में से लगभग 290 वस्तुएँ प्राप्त हुईं, जिनमें सीता, हनुमान, शिव व गरूड़ की मूर्तियाँ, दो पीतल के घंटे, चांदी का छत्र, पत्थर की चरण पादुकाएं प्रमुख थीं। पाली भाषा में उत्कीर्ण दो शिलालेख और एक लाल पत्थर (जिस पर सिंह के दाँत गिनते हुए बालक भरत का चित्र है) भी मिले। लेकिन विडम्बना ही है कि जितनी भी तथ्यपरक बातें थीं उन्हें तत्कालीन कांग्रेस सरकार द्वारा छिपाया गया और मीडिया का दुरुपयोग कर जनता व विश्व को गुमराह किया गया। मलबे में मिली वस्तुओं की ओर जब सेकुलर-लिबरल बिरादरी का ध्यान दिलाया गया तो इन प्रमाणों को यह कहकर खारिज करने की कोशिश की गई कि ये वस्तुएं तो पहले से लाकर छिपा दी गई थीं।
इन लोगों से पूछा जा सकता है कि एक ऐसा स्थान जहाँ चप्पे-चप्पे पर दर्जनों अधिकारी- सैकड़ों पुलिसकर्मी तैनात हों, वहाँ इतनी आसानी से इतनी सारी वस्तुएँ- जो कम से कम एक ट्रक में ही आ सकती थीं, किसी की भी नजरों से कैसे बच गईं? यही नहीं, देश-विदेश के दर्जनों मीडियाकर्मी जो पल-पल की घटनाओं पर नजर रखे हुए थे, उनकी नजरों में भी यह बात क्यों नहीं आई?
अब एक नजर उस समय के समाचारपत्रों में छपे तथ्यों पर डालते हैं, जो बाबरी ध्वंस के सम्बन्ध में लगाए गए आरोपों व दुष्प्रचारों पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करते हैं
• केन्द्र सरकार ने हफ्ते भर पहले ही राज्य के पुलिसकर्मियों को हटाकर सीआरपीएफ की टुकडि़याँ तैनात कर दी थीं, जिन पर राज्य सरकार का कोई नियंत्रण नहीं था। फिर तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को कार्रवाई का आदेश न देने का दोषी क्यों बताया गया? यही नहीं, ढाँचा ध्वंस के बाद उ0प्र0 के साथ ही राजस्थान, मध्यप्रदेश और हिमाचल प्रदेश की भाजपा सरकारों को भी बर्खास्त क्यों कर दिया गया? क्या यह तानाशाही नहीं थी?
• इस घटना की जाँच के लिए बने लिब्रहान आयोग ने तत्कालीन गृहमंत्री एस.बी. चव्हाण के वक्तव्य का भी संज्ञान नहीं लिया जिसमें उन्होंने साफ कहा था कि ढाँचा ढहाने की कोई पूर्व योजना नहीं थी और यह सब अचानक ही हो गया था। बाहरी न्यायाधिकरण के आदेश के अनुसार भी आरएसएस, विहिप और बजरंगदल की भूमिका न होने की बात कही गयी थी।
• सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त पर्यवेक्षक ने भी 6 दिसम्बर की सुबह तक रिपोर्ट दी थी कि ‘सब कुछ शान्तिपूर्ण है।‘
• विवाद पर अदालती फैसला 2 दिसम्बर को आना था, परन्तु जजों की छुट्टियों के कारण फैसला 11 दिसम्बर तक टाल दिया गया। इस कारण भी जनता में गुस्सा बढ़ा। महाराष्ट्र से आए कारसेवकों की टोली में से एक कारसेवक ने दैनिक ‘आज’ के संवाददाता के सामने मराठी लहजे में अपना गुस्सा जाहिर किया- “ये बीजेपी का नेता लोग क्या समझता है? हम इतना दूर से यहाँ क्या झाड़ू-पोंछा करने के वास्ते आया है? आज इसको खलास करके ही जाएंगा।“
• जब कुछ कारसेवक गुम्बद पर चढ़ गए तो आर.एस.एस. के स्वयंसेवकों ने बाकी कारसेवकों को नियंत्रित करने के लिए मानव श्रृंखला बना ली थी, परन्तु बेकाबू भीड़ के आगे श्रृंखला टिक न सकी और टूट गयी। (रिपोर्ट, दैनिक जागरण)
• कारसेवा में लगभग 1200 मुस्लिम कारसेवक भी शामिल थे जिनका जिक्र अमर उजाला, दैनिक जागरण और आज जैसे समाचारपत्रों में भी था, परन्तु इस खबर को राष्ट्रीय मीडिया में कोई महत्व नहीं दिया गया।
• 1991-92 में उ0प्र0 के लगभग 3000 मुस्लिमों ने अपने हस्ताक्षरों से युक्त एक ज्ञापन राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री को सौंपा था, जिसमें विवादित स्थान हिन्दुओं को देने तथा मस्जिद के लिए नया स्थान देने का आग्रह था। परन्तु सद्भावना के प्रतीक इस ज्ञापन को भी रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया।
• अयोध्या में कई मुस्लिम परिवार मन्दिरों की पूजा-सामग्री आदि बेचकर अपना व परिवार का भरणपोषण करते हैं। 1991 में दैनिक ‘आज’ के संवाददाता ने जब उनकी राय जाननी चाही तो उनका उत्तर था- “मन्दिर बनेगा तो हम लोगों को ही लाभ होगा, क्योंकि हमारा व्यापार बढ़ेगा तो आर्थिक स्थिति भी सुधरेगी। मस्जिद से हमें क्या हासिल होने वाला है। लेकिन ये नेता लोग जनता की सुनते ही कहाँ हैं। उन्हें तो अपनी राजनीति की दुकान चलानी है।“
इसी सन्दर्भ में प्रसिद्ध व्यंगकार स्व0 सरदार सिंह ‘पागल’ ने पंजाब केसरी में प्रकाशित अपने लेख में लिखा था-झगड़ा तो सुलझ जाता- कुछ ले-देकर, मध्यस्थता से या किसी और जरिए से। परन्तु यह तो ‘रगड़ा’ था, और रगड़े कभी नहीं सुलझते, क्योंकि उनके पीछे हमेशा बदनीयती होती है।”
कथित पंथनिरपेक्ष दलों का हिन्दुत्व के प्रति यह दुराग्रही रवैया खतरनाक स्तर तक बढ़ चुका है, जिसने देश की सामाजिक, शैक्षिक व राजनीतिक स्थिति को ही नहीं, बल्कि सामरिक और आंतरिक सुरक्षा को भी बुरी तरह प्रभावित किया है। इस दुष्प्रचार के खिलाफ कारगर ढंग से निपटने के लिए जनता को भी पहल करनी होगी। आज ऐसे राष्ट्रवादी व्यक्तियों व संगठनों को आगे आने की जरूरत है जो देश की सामाजिक-सांस्कृतिक एकता व संप्रभुता को बदनाम करने वाली शक्तियों को बेनकाब कर सकें। वरना इसी तरह देश की छवि को निहित स्वार्थी तत्वों व देशतोड़कों द्वारा नुकसान पहुँचाया जाता रहेगा, और इसकी एक वजह इनके प्रति हमारी उदासीनता भी होगी। सौभाग्य से आज सोशल मीडिया के माध्यम से जनता ने इनके दुष्प्रचारों की हवा भी निकालनी भी आरम्भ कर दी है, इसीलिए यह देशतोड़क-समाजतोड़क जमात बौखलायी हुई है और आज भी भारत के गौरव के प्रतीक राम मंदिर के विरोध में तरह-तरह के कुतर्की बहाने तलाश रही है। क्योंकि इन्हें अपनी राजनीतिक दुकानें बन्द होने का खतरा सता रहा है। इनकी हालत देखकर हम यही कह सकते हैं- ‘खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे।’

लेखक

शलभ सक्सेना

लेखक प्राइवेट नौकरी करतें हैं। पत्र-पत्रिकाओं के लिए लिखते रहतें हैं।

लेखन के अतिरिक्त, घूमना, पढ़ना, फोटोग्राफी भी लेखक के शौक है।

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