प्रसारण भाषा: हिंसक और ट्रोल होती भाषा ही मीडिया की भाषा

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जब-जब टेलीविजन की भाषा की बात होती है तब-तब उसके साथ उस भाषा का परिवेश सामने आता है कि जो मीडिया की वर्तमान में असल  भाषा है। इन दिनों सत्य है कि यही भाषा पूरी दुनिया में विश्व जनमत को बनाने में आजकल  प्रतिष्ठित मीडिया प्रसारण का एक ऐसा हथियार अर्थात कम्युनिकेशन टूल बन चुकी है कि जिसके साथ आप जी रहे हैं ।  जिसके साथ आप इस जिंदगी का एक नया सफर शुरू कर चुके हैं ।

सच तो यह है, इसी तरह की हाइब्रिड भाषा ही पूरी दुनिया में आज की मानव समाज की पहचान बन चुकी है और यह पहचान ऐसी है कि जो आपको वैश्विक स्तर पर जोड़ती है परंतु संतुलित परिवारिक तथा रिश्तो की भविष्य से आपको तोड़ती है जिसकी तरफ किसी का भी कोई भी रुझान नहीं है ।

इस लेख में हम उन बिंदुओं का जिक्र करेंगे जिसके कारण इस तरह की भाषा का एक नया प्रवेश हमारे सामने प्रस्तुत हो गया है कि हम उसी में ही जीने लगे हैं अर्थात उसी को ही जीने का एक तरीका बना चुके हैं यही इन दिनों समय का सच है।

इस समय पूरे मीडिया जगत में जब आप मीडिया भविष्य का जिक्र करते हैं तो बहुत पहले उस की भाषा के जिक्र की बात होती है

यह जिक्र उस भाषा का है जो भाषा हमारे समाचार पत्रों की थी । इस समय यदि भारत में हम विशेषकर हिंदी भाषा की बात करें तो यह वह भाषा है जो हमारे समाचार पत्रों ने हमें प्रस्तुत की जिस को हम टकसाली भाषा कहते थे और दूसरे शब्दों में कहें तो यह एक वह भाषा थी जिसको आप संसदीय भाषा अर्थात पार्लियामेंट्री लैंग्वेज कहकर पुकारते थे ।

यह जनमत भारतीय समाचार पत्रों का था जिन्होंने भाषा के उस निजाम को पैदा किया जिसमें भाषा की वर्तनी से लेकर उसके व्याकरण के पक्षों  को भी देखा जाता था । आज भी यदि आप पुराने अखबार आप उठाकर देखोगे तो आपको पता चलेगा कि भाषा में लय और अर्थों के साथ-साथ वर्तनी कामा तथा पूर्ण विराम का अर्थ क्या है यह भाषा की ही एक नई देन थी।

परंतु जैसे-जैसे समय बदला दुनिया बदली तकनीक के नए साधन आ गए और नई सूचना प्रणाली ने तो एक तरह से संचार प्रसार और प्रसारण की दुनिया की दिशा और दशा दोनों ही बदल दी और इसका स्वरूप बदल दिया ।‌ इसका चकाचौंध और चमकता हुआ ग्लैमरस हाइब्रिड अर्थात मिली-जुली भाषा का ही चेहरा आज हमारे सामने आ गया है । इन दिनों इसे खिचड़ी भाषा कहा जा सकता है जिसको मिली-जुली भाषा कहा जा सकता है । जिसको कार्य विभाग की प्रयोजनमूलक हिंदी भाषा का नाम दिया गया है परंतु आज यह भाषा वैश्विक चरित्र और पहचान की परीक्षा हो गई है परंतु  आज इस मुद्दे पर हम यहां पर विचार कर रहे हैं कि क्या इन दिनों यह भाषा हिंसा की भाषा हो गई है? आज भाषा ने अहिंसा को छोड़ दिया है और हिंसक होती भाषा के इस नए समीकरण तथा नए स्वरूप को क्या इन सूचना प्रसारण माध्यमों ने जिस में सोशल मीडिया का बेहतरीन नमूना देखा जा सकता है ।

इन दिनों सच तो यह है कि आज हमारी भाषा सोशल मीडिया से भी कहीं ज्यादा जातीयता और गाली गलौज और हिंसा से भरी हुई हो गई है। यही भाषा आज हमारी विधानसभाओं में तथा संसद भवन में भी देखी जाने लगी है यह हमारे चरित्र आचार – व्यवहार का गिरता हुआ स्तर है और जिसे हम संभालने में सदैव नाकाम रहे हैं और इसके साथ में यह भी जोड़ दूं कि आज इस पक्ष में सबसे बड़ा मुख्य कारण ट्रोल होती भाषा का वह चेहरा है और जो भारत को सिखाता है कि आज भाषा की समस्या नहीं है।

इस समय भाषा की समस्या यह है कि जो हम बोल रहे हैं और जो हम पूरी दुनिया से भाषाई शब्द अपनी जुबान में अपनी भाषा में समाहित करते हुए एक नई दुनिया की उस तस्वीर से आत्मसात करते हैं जो तस्वीर में दिखाती है कि अब दुनिया में बहुत कुछ बदल रहा है । इस भाषा में उत्तेजना है । इस भाषा में धमकी है और इसका मानसिक तथा मनोवैज्ञानिक किस तरह से हमारे आचार व्यवहार और समाज पर असर पड़ता है ।  यह सब की जिम्मेदारी है कि आज सूचना प्रसारण बाद में है,   विशेषकर सोशल मीडिया की भाषा है जिसमें ट्विटर से लेकर पॉडकास्ट कोई भी उस मर्यादा का पालन नहीं कर रहे ।

इसमें सबसे ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं का सिलसिला उस भाषा से सामने आता है जो हमारे व्हाट्सएप की संवाद की भाषा है और यूट्यूब पर तो आज हर आदमी जब से निर्माता-निर्देशक कैमरामैन और चैनल का मालिक बना है । सब मर्यादा और भाषा का आचार व्यवहार तथा प्रयोजनमूलक चेहरा ही बदल गया है ।

इस समय यह किस तरह का कार्य है जो ज्ञान की सीमाओं को तो बढ़ा रहा है परंतु यह सूचना का नया संसार है जिसमें एक बड़ा संचार तथा इंफॉर्मेशन का है । यह इंफॉर्मेशन क्या है यदि इस पर ही संशोधन करते हुए हम बात करें तो हमें पता चलता है कि आज पूरी दुनिया में इस पर बहस चल रही है । यह बदलाव सबसे पहले सूचना प्रसारण के माध्यमों द्वारा पूरी दुनिया में परोसा जा रहा है और यही सबसे वैश्विक स्तर पर एक हिंसा की भाषा जो समाज को जोड़ती नहीं है अर्थात अलग खाई पैदा कर रही है ।

इन दिनों जिस तरह से फ्रांस में दंगे चल रहे हैं जिस तरह से मैं दिल्ली से लेकर अफ्रीका के देशों में बातें हो रही हैं । इन दिनों यह  तीखे कड़वाहट की भाषा है और इस भाषा को ट्रोल होते देखा जा रहा है । इस पर बात करते हुए जब फ्रांस के प्रधानमंत्री से लेकर प्रधान तक यह कहते हैं कि यह भाषा मीडिया द्वारा फैलाई गई है तो फिर आपको समझ लेना चाहिए कि इस भाषा का असर किस तरह का है और यह भाषा किस तरह से समाज को तोड़ रही है ।

हमारे यहां भी इस भाषा का कोई बहुत अच्छा आने वाले दिनों में चेहरा दिखाई नहीं देता है । वह लगभग पुरानी हिंदी भाषा को सेतु भाषा को अलग से प्रस्तुत करता है जिसमें भाषाई तनाव के साथ-साथ विभिन्न संप्रदायों में तथा समुदायों में सद्भाव की सीमा को अर्थात अहिंसा शांति अमन चैन की नींद की रातों को यह भाषा खत्म कर रही है और इस सारे के सारे पीछे सबसे ज्यादा हाथ आज के सोशल मीडिया का है।

इस पर बात करते हुए पत्रकार प्रशांत टंडन ने अपनी टिप्पणी में इसे ट्रोल होती भाषा का नाम दिया है और उन्होंने लिखा है कि किस तरह से रोल होती भाषा डिजिटल और दूसरे मीडिया की भाषा को आज समाज तोड़ रही है उन्होंने भड़ास में यह जिस तरह से अंकित किया है उसे पाठकों की नजर उसी उनके शब्दों में ही मैं यहां पर प्रस्तुत कर रहा हूं जिसमें वह लिखते हैं कि भाषा का असल मकसद सद्भाव होना चाहिए प्रेम होना चाहिए परंतु यह भाषा आजकल होती भाषा देश को समाज को बिखेरने का काम कर रही है देखिए उनकी टिप्पणी में किस तरह उन्होंने इस बांगी को प्रस्तुत किया है यह उन्हीं के शब्दों में आपके लिए यहां पर संपादित करके दिया जा रहा है वह लिखते हैं उनके सर लेख से कुछ नामों को इसलिए हटाया गया है कि बात सिर्फ भाषा की हो ना कि किसी व्यक्ति विशेष की।

. . . कि ट्रोल भाषा ही राष्ट्र भाषा बन गई है।  एक नई परिपाटी आ गई जिसमे नेता अवतार है और गाली गलौज तक उतर जाने वाली भक्तों की टोली. जो भी विचार,  नीतियों या बयानों की आलोचना करे उस पर टूट पड़ो, यानि आलोचना का उत्तर सामान्य असहमति नहीं है ट्रोल भाषा में ये सिर्फ हेट स्पीच के द्वारा ही की जा सकती है. इसमें शिष्टाचार या सार्वजनिक प्लेटफोर्म पर भाषा की मर्यादा की कोई जगह नहीं।

दुख की बात है सेक्यूलर खेमे में भी यही संस्कृति हावी हो रही है. मतलब सामान्य रहना ही नहीं है. किसी मामूली जिज्ञासा या दृष्टिकोण का जवाब चिढ़ कर ही दिया जा सकता है. सोशल मीडिया पर रोज़ देखता हूं और इस तरह की कम्यूनिकेशन से चिंतित भी हूं. शब्दों के चयन का उद्देश्य अगर किसी को नीचा दिखाना है तो ये दोनों तरफ मानसिक संतुलन को बिगाड़ेगा आज नहीं तो कल।

अपने इसी आलेख में श्री प्रशांत टंडन आगे कहते हैं कि जिस संस्कृति को लाये उसका प्रतिरोध भी उसी टूलकिट के इस्तेमाल करके बनाया जा रहा है। विरोध के भी भक्त-अवतार मॉडल निकल आये हैं. लगभग सभी पब्लिक फ़िगर्ग के इर्द गिर्द एक गाली गलौज वाली टोली बन गई है. ‘सेक्यूलर’ ऐंकर्स और सोशल मीडिया इंफ्लूसर्स के पीछे भी तलवारे लिए लोग चल रहे हैं।

उनके अवतार को कुछ कहा तो उसी भाषा शैली में आपका कमेंट बॉक्स भर जायेगा जैसा कि भक्तों की तरफ़ से होता है। यानि किसी व्यक्ति या विचार के दो पक्ष होने का स्कोप ही नहीं है। ऐसे सामान्य संवाद कैसे संभव हो सकता है?

ट्रोल भाषा अब सोशल मीडिया की चाहर दीवारी लांघ कर घरों और दफ़तरों तक घुस गई है. ट्रोलभाषा निजी संबंध तो प्रभावित कर ही रही है एक ईको चैंबर भी बना रही है । इसी विषय पर सुप्रसिद्ध पत्रकार श्री ओम पुलिस ने इस तरह टिप्पणी की है उन्हीं के शब्दों में उनकी स्थिति को यहां पर संपादित किया जा रहा है जरा देखें उनका पक्ष

काफ़ी समय से मैं भी यही महसूस कर रहा हूँ। बहुत सारे व्यूअर हमारे लेख या वीडियो पसंद करते हैं. पर कुछ सलाह भी दे बैठते हैं कि आप उनकी तरह ठोक कर या कड़क कर लिखिये या बोलिये! मैं कोई जवाब नहीं देता। अब उनको कैसे बताऊँ कि मैं एक प्रोफेशनल पत्रकार हूँ, हरकारे या जयकारे लगाने वाला ‘चीखू’ नहीं हो सकता!

बहुत से लोग यह सोचते हैं कि भाषा क्या है परंतु प्रशांत टंडन की इस टिप्पणी का मार्मिक अर्थ इन शब्दों में भी देखा जा सकता है। वह कहते हैं जब सोशल मीडिया आया जो इसके बीच में हैं उनके बारे में सोचता हूँ जिन्हे जीवन काटना है इसमें एक ऐसा समाज जिसमे सब चिढ़े हुए घूम रहे हैं, भाषा का शिष्टाचार नहीं है।

इस आलेख का सारांश श्री उर्मिलेश के शब्दों में ही किया जा सकता है जिसमें वह लिखते हैं:

एक पत्रकार के रूप में, मैं सूचनाएँ और तथ्य दे सकता हूँ। इनकी रौशनी में किसी प्रक्रिया या घटनाक्रम की व्याख्या कर सकता हूँ। पर मैं जिस व्यक्ति या समूह की आलोचना करता हूँ, उसके विरुद्ध भद्दे शब्दों का प्रयोग नहीं कर सकता। किसी ‘ख़ास रंग’ के ‘ट्रोल’ के विरुध्द किसी अन्य रंग का ‘ट्रोल’ मैं नहीं बन सकता! सोशल मीडिया पर भी मेरी उपस्थिति भी एक आम नागरिक या एक पत्रकार के तौर पर है. मैं न किसी दल या संगठन का सदस्य/समर्थक हूँ और न ही किसी नेता का प्रचारक जो सही लगता है, वह अपने ढंग से लिखता हूँ।

भाषा के बारे में इन टिप्पणियों  से अब समझा जा सकता है कि यह भाषा आमजन की भाषा है परंतु जिस तरह की भाषा का प्रयोग मीडिया की भाषा के द्वारा आज इससे कोई भी मीडिया का उपकरण तथा प्रचार साधन संसाधन एवं प्रसारण माध्यम बचा ही नहीं है। इन दिनों तो फिर इसका अर्थ क्या रह जाएगा परंतु यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि यदि हमारे प्रसारण माध्यमों ने भाषा की मर्यादा का ख्याल नहीं रखा तो देशद्रोही तो कहलाएंगे ही क्योंकि भाषा का एवं प्रसारण माध्यमों का सबसे बड़ा निश्चय  एक विषय जे होना चाहिए कि देश जिंदा रहेगा, देश की जमीन और देश का परचम परंतु यह कौन समझता है आजकल सब टीआरपी और अपने अपने राजनीतिक खेमों में बैठे हुए भाषा की ऐसी तैसी कर रहे हैं ।

कुछ बेहतर होना तब संभव है जब हम अपनी भाषा को ऐसी भाषा बनाएं जो प्यार प्रेम और मोहब्बत और आपसी भाईचारा और सद्भाव का जीवन जीने के लिए हमें उन विषयों की ओर अग्रसर करें जिसमें हमारा आने वाला कल और भी सुरक्षित हो। यही भाषा की सबसे बड़ी प्राथमिकता होनी चाहिए और यही आज समय की आवश्यकता है कि हम भाषा को प्रेम की भाषा बनाएं बदले किसी भी प्रसारण माध्यम से लोगों तक पहुंचे।

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