दुनिया मेरे आगे: उड़ जा काले कावा

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समय के इस कालचक्र में समय के शिलालेख पर इन दिनों कितना कुछ बदलता जा रहा है कि आप उन लम्हों को अपने मन मस्तिष्क की तरंगों के साथ भी पकड़ नहीं पा रहे हो।

यही तो इस भागते हुए समय में बदलते हुए उपभोक्ता एवं परमाणु धुएं के ढेर पर बैठे हुए इस नए परिपेक्ष में बदलती हुई दुनिया की एक भयावह तस्वीर है जो आपको इसके खतरनाक  परिणामों से ओतप्रोत होते हुए आपको सदैव तनाव में रखती है ।  आज इस बदलती हुई दुनिया की इस शिलालेख पर जिस तरह के तनाव एवं उदासीनता एवं आभासी दुनिया की दस्तक ने आज समाज को बदला है वह इससे पहले कभी भी नहीं था परंतु जीवन का सच यही है कि दुनिया बदलती है ।

इस बदलती हुई दुनिया ही एक नई आभासी दुनिया  और तकनीक से सूचना संसार के प्रचार प्रसार की नई प्रौद्योगिकी  को आपके साथ जोड़ती है और भविष्य में आने वाली नस्लों के लिए आज के वर्तमान को सुरक्षित करती है । यही तो समय का पहिया है जो इतिहास कदीम इतिहास से चलता हुआ वर्तमान से भविष्य की ओर से आपको नई नस्लों के लिए नई उम्मीदों के लिए और नए अविष्कारों के नए आसमान की ओर लेकर चल रहा है परंतु समय की इस बदलती हुई धारा एवं चमकते हुए सूचना क्रांति के विस्फोट ने जिस तरह से हमें बदला है हम उसके साथ कदमताल नहीं कर पा रहे हैं ।

इसीलिए ही ड्रग ,उदासीनता अकेलापन और पलायनवादी  झटकों के साथ जिंदगी बेहद अकेली होती जा रही है । इन दिनों हमारे गांव और महानगरों में जिस तरह की दूरियां बढ़ गई है उसने और भी उदासीनता एवं गांव से पलायन का मुद्दा और बौधिक पलायन विदेशों में जिस तरह से ब्रेन -ड्रेन के नाम पर हो रहा है यह बढ़ती हुई चकाचौंध आज कुल मिलाकर आपकी भारतीय संस्कृति को तिलांजलि देती हुई पैकेज और प्रवास पर जाकर रुक गई है ।

इन दिनों हमारे रिश्ते नाते जिस तरह से नई दुनिया के मंदिरों से संदेशों के बिना लौट कर आते हैं तो फिर लगता है कि वह गांव कहां चले गए और आने वाले  वर्षों में जिस तरह के बदलते हुए गांव का मंजर हमें दिखाई देगा वह और भी भयावह होगा आज एक पीढ़ी गांव में खत्म हो रही है । अब गांव की मुंडेरों पर उड़ जा काले कावा की बात करने वाले गांव को भी मिठास भर कर चोगा डालने वाले माता-पिता एवं प्रदेश शहर गए पिया के साथ कावो को बुलाने वाली वह सखी कहीं नहीं है । वह भी रोजगार की तलाश में अपने पिया के साथ शहर में संघर्षरत हो गई है ।

गांव में बूढ़े मां- बाप उदास झुर्रियों पड़े हुए चेहरों के साथ दरवाजे पर बैठकर डाकिए का इंतजार नहीं करते । वह जमाना चला गया जब डाकिया डाक लाया  करता था । चिट्ठी पढ़कर सुनाता था और फिर बख्शीश लेकर अशीष देता हुआ किसी अगली चिट्ठी के लिए आने की लेकर आने का वादा करता हुआ साइकिल की घंटी बजाता हुआ  खाकी कपड़े और खाकी टोपी में दूर लुप्त हो जाता था ।  लोग उसकी कितनी कदर करते थे । मुझे याद है अभी हाल की ही बातें हैं कौवे और मडेरों पर नहीं बैठते क्योंकि मंडेरे खत्म हो रहे गिरते हुए घरों की दास्तां का पलायन का एक ऐसा नक्शा दिखा रहे हैं ।

इस समय बच्चे प्रवास पर प्रदेश चले गए हैं । कुछ शहर के महानगरीय जिंदगी के हिस्सा हो गए हैं । जिंदगी के संघर्ष को तिलांजलि देते हुए कुछ पल पल जीने का जुगाड़ कर रहे हैं । क्या यही है जिंदगी का असली रंग जिसमें हमने अपने गांव तो गंवा ही दिए और अपने रिश्तो की संजीदगी के साथ रिश्तो की गरमाहट एवं भाईचारा भी छोड़ दिया है ।

अब उड़ जा काले कावा अब खाली घरों की उदास मुंडेरे खाली है । यह भरोसा भी नहीं है और लगता है कि इस आभासी दुनिया की तेज तरार जिंदगी ने हमसे सब कुछ छीन लिया है और इसी सीना चपटी में हमने सब कुछ गंवा कर जो चेष्टा की है वो आज हमारी उदास आंखों से दिखती है । इस मजबूरी में पल-पल बूढ़े हो रहे मां-बाप घरों के वीराने दरवाजे पर बैठकर बच्चों की इंतजार करते हैं परंतु किसी के पास समय नहीं है कि वह महानगरीय और विदेशों में प्रवास की जिंदगी को छोड़कर अपने मां-बाप से चंद लहमें बिताने के लिए आ सके ।

क्या यही जिंदगी का वह संताप है जिस जो हमें नई प्रौद्योगिकी एवं नई उपभोक्तावादी संस्कृति दिखा रही है ?

इन दिनों जब संभावनाएं खत्म होने लगती हैं तो फिर तमाम चीजें भी खत्म होने लगती हैं । यह आभासी दुनिया का अलार्म किस तरह से आज इस छोटी सी स्क्रीन में समा गया है। क्या कभी उपवास के दिन हूं जिस दिन हम अपना मोबाइल बंद कर ले ? मुंडेरों पर बैठे हुए काव को एक बार बुला कर देखें एक बार अपने बूढ़े मां -बाप को गांव में जाकर देखें और फिर देखें बंद घरों में घास के पौधों को जिन्होंने खुशियों से भरे हुए आंगन के स्वरों को घास में ढक दिया है ।

इस समय यह गांव से उजड़ा हुआ देश है और मन से भी सस्ता हुआ मुंडेरों  का दर्द है । अभी भी समय है, हम इस देश की धरती के साथ अपने रिश्तो को बचा कर रखें ।

नहीं तो सीमेंट के इस जंगल में भीड़ के इस शहर में आपकी ममता आपके रिश्ते उल्लाहने लोरियां गीत सब कुछ डूब जाएगा और यह सुनामी के बाद फिर जो कुछ बचेगा ! वह अब हंसी दुनिया का ही चेहरा होगा जिसमें कोई संवेदना का हाथ नहीं होगा कोई हाथ छूकर नहीं देखेगा कोई आंखों के सपने नहीं देख सकेगा ।

क्या हम आने वाले कल के लिए ऐसी दुनिया की कल्पना करते हैं ? कतई नहीं । थोड़ा सा पीछे लौट कर देखो । गांव हमें याद कर रहे हैं और उड़ जा काले कावा का संदेश फिर से हमें बुला रहा है । आ! अब लौट चलें उन घरों और उदास मुंडेरों पर और उनको भी बुलाएं जो कभी जिंदगी की  खुशी और आने वाले संदेशों का प्रतीक होते थे ।

चलिए, एक बार फिर से जिंदगी की इस राह और समय के शिलालेख पर फिर से लिखें :

जिंदगी जिंदाबाद ।

     गांव की धरती आबाद रहे।


लेखक

प्रोडॉ .कृष्ण कुमार रत्तू

लेखक सुप्रसिद्ध ब्रॉडकास्टर एवं मीडिया विशेषज्ञ हैं। उन्हें इस लेख पर आप अपनी प्रतिक्रिया 94787 30156 पर दे सकते हैं।

Prof.(Dr.)K K Rattu. IBS – Director Media and Professor Head Department of Journalism and Mass Communication – Jaipur National University | LinkedIn

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