“गढ़वाली लोकगीत उत्तराखंड की सांस्कृतिक विरासत हैं”, पद्मश्री डॉ माधुरी बड़थ्वाल

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आज अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के साथ विश्व संगीत दिवस भी है। उत्तराखंड अपनी विशेष संस्कृति के लिए विश्व प्रसिद्ध है। उत्तराखंड की संस्कृति में यहां के लोकगीतों का विशेष महत्त्व है। डॉ माधुरी बड़थ्वाल जी को उनके कला और संगीत के क्षेत्र में अपने विशिष्ट कार्य के लिए 2022 में भारत सरकार द्वारा पद्मश्री से नवाज़ा गया। पद्मश्री डॉ माधुरी बड़थ्वाल जी का मानना है कि संगीत में पूरी मानव जाति को एकता के सूत्र में बांधने की शक्ति है। संगीत के मंच पर न तो जाति और न ही कोई धर्म दिखाई देता है।


माधुरी जी की बहुचर्चित किताब : गढ़वाली लोकगीतों में राग – रागिनियाँ , उनके गढ़वाल की लोक धुनों में भारतीय शास्त्रीय रागों के उपयोग पर शोध पर आधारित किताब है।

Jagritimedia आज विश्व संगीत दिवस के अवसर पर अपने पाठकों के लिए,  पद्मश्री डॉ माधुरी बड़थ्वाल जी द्वारा लिखित  गढ़वाली लोकगीतों में राग – रागिनियाँ किताब के अध्याय – 7 से , “सांस्कृतिक विरासत एवं गढ़वाली लोकगीत” लेख ले कर आया है।

 


सांस्कृतिक विरासत एवं गढ़वाली लोकगीत

गंगा यमुना का उद्गम स्थल गढ़वाल अनेकानेक संस्कृति समन्वय और ऐतिहासिक परम्पराओं से संपन्न है। सुरभिपूर्ण वातावरण से यह पुण्य स्थल देवभूमि के नाम से अलंकृत है। यहां का हर प्राणी शील स्वभाव का, अतयंत भावुक है। जो पूर्णरूपेण प्रकृति से जुड़ा है। लोकगीत जिनसे मानव मन आलोकित होता है, ये निसर्ग सम्पदा, स्वयंभू है।

नैसर्गिक धुनों में निबद्ध और स्वछंद गतिशील काव्य को ही लोकगीत कहते है। वह गीत जिनसे समाज आलोकित हो, पुलकित हो , प्रकाशवान हो, वो ही लोकगीत हैमानव पीढ़ी-दर पीढ़ी गीत गाता चला आया है। गीतों की यह परम्परा जिनमे संस्कार सांस लेते हैं, लोकगीत कहलाते हैं। ये ही हमारी धरोहर, हमारी विरासत हैं। लोकगीतों में लोकसंस्कृति की व्यापक अभिव्यक्ति प्राप्त होती है। संस्कृति शब्द अपने आप में बहुत व्यापक है। यहाँ पर संस्कृति का तात्पर्य उस लोकसंस्कृति से है जो लोकगीतों में अभिव्यक्त हुई है। मानव के समाजिक विकास , परम्परायें, मानयतायें इन्ही लोकगीतों में समाहित है। लोकगीतों में व्यापक लोकतामाभिव्यक्ति और मनोरंजन के साथ-साथ लोक कल्याण और लोक शिक्षा का प्रभाव निहित है।

किसी भी मनुष्य मात्र के लिए समाज का सर्वोत्तम उपहार है, संस्कृति। संस्कृति प्रकृति की देन नहीं है बल्कि यह मानव की देन है। प्रकृति का संस्कृति निर्माण में योगदान है। प्रकृति संस्कृति की प्रेरक है। लोकगीतों में समाज के संस्कार सुरक्षित होते हैं। अतः समाज के मूल्यों को समझने के पवित्र साधन ये लोकगीत ही हैं। गढ़वाल की संस्कार निष्ठ परम्परा भी इन लोकगीतों में विद्यमान हैं। यही सत्यम , शिवम् , सुंदरम से सुसज्जित हमारी संस्कार निष्ठ परम्परा हमारी सांस्कृतिक विरासत है।

सांस्कृतिक विरासत में गायन का अथाह भंडार है यथा लोकगीत, लोकगाथाऐं, वादन के अन्तर्गत विभिन्न लोकवाद्य जिनका एक समृद्ध पौराणिक इतिहास है , ढोल – दमौं मुख्य वाद्य है।

ढोल – दमौं की उत्त्पति स्वयं शंकर भगवान एवं माता पार्वती से हुई मानी जाती है। भगवान शंकर के तांडव से ही ढोल – दमौं वादन की परम्परा चली आ रही है। गढ़वाल के कलावंत या बाजगी बड़ी कुशलता पूर्वक इस समृद्ध वादन शैली को जीवित रखे हुए हैं। छत्तीस वाद्य यंत्रों का उल्लेख वृहद ग्रन्थ ढोल सागर में भी किया गया है। इन सभी वाद्य यंत्रों की पृथक वादन शैली है। एक मात्रा से लेकर उन्तालिस मात्राओं की तालें इसमें समाहित हैं।

इसके अतरिक्त अन्य वाद्य जिनके बखान लोक गीतों में सुनने को मिलतें हैं, ऐसे बावन वाद्य यंत्र गढ़वाल की संस्कृति में उल्लेखित हैं।

भगवती नंदाराज जात के अवसर पर हिमवंत में नृत्य अभी भी जीते जागते हैं। ” कत्यूर वंश ८५० – ११९० ई के ताम्र पत्रों में गीत , वाद्य , नृत्य के प्रसंग हैं। “1
“हिमालय के आदिम निवासी किन्नर, किरात और नाग जातियों में नृत्यगान के कल्पनातीत स्मरण के बाद हिमवंत के इतिहास में ऋग्वेद कालीनपड़ोसी पांचाल राजदिवोदास – सुदामा के युग में ढोल का प्रसंग आया है। ” 2 “अकबर के समकालीन गढ़वाल नरेश महाराजा मान शाह के मानपुर वर्णन में ‘गीत , वाद्य – परिनृत्य – मंगले संकुलं विपणि कुट्टिटयों ज्ज्वलं ‘ जैसे उदाहरण इस बात के प्रतिक हैं कि आदिकाल से हिमवंत निवासियों को गीत , वाद्य और नृत्य अपने पूर्वजों से विरासत में प्राप्त हुए हैं”3

सबसे प्राचीन मांगल गीतों में वैदिक संस्कृति स्पष्ट झलकती है।

  • ऐजा आगनी तू मातुलोक”
  • आज न्यूतीयाली मिन सटटयो की सटेडी”
  • “गौ माता कामधेनु को न्योता भेजना “
  • जावा म्यारा बाबाजी गगनवती गौशाला “

इनसे स्पष्ट है कि वैदिक धर्म कि धारा वहां उस युग में पहुँच गई थी जिसमे आकाश की बिजलियों से अग्नि को उतपन्न कर, उसे उपयोग में ला सकना , आर्य सीख रहे थे। मांगल लोकगीत केवल महिलाओं द्वारा ही गाये जाने की प्रथा है। मांगल गायन के लिए जिन महिलाओं को आमंत्रित किया जाता है उन्हें मंगलेरी के नाम से जाना जाता है।

संस्कृति निष्ठ परम्परा इन्ही लोकगीतों में प्रवाहित होती है। नामकरण संस्कार से लेकर अंतिम संस्कार तक इन लोकगीतों में धार्मिक और सामाजिक परम्पराओं की गतिशील धारा बहती है।
केले के पत्तों , कुलाई यानी चीड़ के पत्तों से मंदिर के आकार की खोली बनाई जाती है। उसके अंदर देवी- देवता प्रतिष्ठित किये जातें हैं।
गाय के गोबर से बने भगवान् गणपति को थरपा जाता है और उनसे दाहिने हो जाने की कामना की जाती है।

निमिन्लिखित मांगल गीत को महिलायें सामूहिक रूप में गाती हैं , उनके मधुर संगीत से वातावरण गुंजायमान होते हैं।

दैणा होंयाँ खोली का गणेसा ऐ, दैणा होंयाँ मोरी का नारेणा हे 

दैणा होंयाँ भूमी का भुम्याला ऐ, दैणा होंयाँ पंचनाम देवा हे 

मकान का ऊर्ध्व स्थान गवाक्ष पर जहां से भगवान् सूर्य नारायण के प्रातःकाल प्रथम दर्शन होतें हैं , मोरी , छोटी सी खिड़की, झरोखा या रोशनदान कहा जाता है। मोरी को नारैण अर्थात मोरी से प्राप्त होते भगवान् सूर्य नारायण के प्रथम दर्शन।

संगीत की परिदृष्टि से गढ़वाली लोकगीत उत्तम श्रेणी में आतें हैं। गायन , वादन व नृत्य तीनो कलाओं का समावेश है , गढ़वाली लोक संगीत।
शास्त्रीय संगीत , सुगम संगीत के मूल में भी यही लोकगीत होतें हैं। इन लोकगीतों में विभिन्न राग – रागनियां परिलक्षित होती हैं। यथा राग दुर्गा का एक सुंदर उदाहरण :-
यह थड्या/ चांछडी लोकगीत राग दुर्गा – दादरा ताल (मात्रा – ६ ) में निबद्ध है।

राग धानी पर आधारित यह चौंफुला पूर्णरूप से माता पार्वती से सन्दर्भित (गौरबा अर्थात गरबा का मूल ) लोकगीत है।
राग धानी , ताल दादरा मात्रा – ६

इसी प्रकार अन्य राग जैसे नारायणी , मेघ मल्हार , दरबारी कान्हड़ा , झिंझोटी , गोपिका बसंत , मालगुंजी , देशकर , देसी , देस , पहाड़ी , भैरवी , भैरव , भूपाली , भीमपलासी , काफी , सारंग आदि राग भी गढ़वाली लोक गीतों मे विद्यमान हैं।

गढ़वाली लोकगीतों में संस्कृति- सत्यम; शिक्षा- शिवं और संगीत- सुंदरम की अवधारणा अवस्थित है , यदि ऐसा कहें तो अतिश्योक्ति न होगी।

संस्कृति किसी भी समाज की आत्मा है , अतः इसे संजीवित रखने का कार्य प्रत्येक व्यक्ति का दायित्व है। संस्कृति का पतन एक समाज का पतन है। जैसा की विद्वान कह गए हैं, ” यदि किसी देश को नष्ट करना हो तो पहले वहां की संस्कृति को नष्ट करना चाहिए। ”
हम कहीं आधुनिकता की होड़ में अपनी मूलयवान धरोहर को ग्रसित न कर दें। हमें अपनी सांस्कृतिक धरोहर जो हमारी विरासत है , इसको संजो के रखना होगा , तभी हमारी आने वाली पीढ़ी इन लोक संगीत रुपी वृक्षों को सींच सकते हैं। हमे इनके सरंक्षण और संवर्धन के प्रति सजग रहना होगा ताकि विकास भी न रुके और संस्कृति भी लुप्त न हो।


सन्दर्भ बिंदु :-
1. हिमालय परिचय “गढ़वाल ” – राहुल सांकृत्यायन
2.  ढोल सागर प्रथम भाग प ० ब्रह्मानंद थपलियाल द्वारा सम्पादित प्रकाशित
3. विराट हृदय प्रो ० शंम्भु प्रसाद बहुगुणा द्वारा उद्घृत मनोदय द्वितीय सर्ग

 

 

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