अटल उत्कृष्ट विद्यालय: कितने सफल?

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खबर थोड़ी पुरानी है, पर सामयिक है। पिछले दिनों सीबीएसई और आईसीएसई परीक्षा परिणामों में उत्तराखंड के अटल उत्कृष्ट विद्यालयों के निराशाजनक प्रदर्शन और आधे से ज्यादा छात्रों के फेल होने की खबरें समाचारपत्रों में प्रकाशित हुई थीं, लेकिन इन पर आमजन का ध्यान अधिक न गया हो। पर इन परिणामों से इन विद्यालयों को खोलने के पीछे के उद्देश्य को गहरा झटका लगा है। वास्तव में ये विद्यालय हिन्दी माध्यम के छात्रों को सीबीएसई एवं आईसीएसई के अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों के समकक्ष खड़ा करने के उद्देश्य से खोले गए थे। सवाल उठता है जब पूरे देश में लागू हो रही नई शिक्षा नीति में मातृभाषाओं में शिक्षा को बढ़ावा देने पर जोर दिया जा रहा है, तब इन अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों को अलग से खोलने के पीछे क्या नीतियाँ और उद्देश्य थे?

जहाँ एक ओर केन्द्रीय सरकार के स्तर पर हिन्दी व क्षेत्रीय भाषी माध्यम वाले छात्रों के एक विशाल वर्ग की शिक्षा, ज्ञान और तरक्की में अडंगा लगाने वाली अंग्रेजी माध्यम की अनिवार्यता वाली विध्वंसकारी शिक्षा व्यवस्था को हटाने के प्रयास हो रहे हों, तब अटल उत्कृष्ट विद्यालयों के पीछे के उद्देश्यों व मंतव्यों के बारे में विचार करना आवश्यक हो जाता है।
इस संदर्भ में राज्य सरकार के नीति-नियंताओं से पूछा जा सकता है कि यदि वे सरकारी विद्यालयों के छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं में सफल होने योग्य बनाने हेतु ऐसी व्यवस्था बना रहे थे, तो यह व्यवस्था अलग से बनाने की क्या तुक थी? क्या यह नहीं होना चाहिए था कि मौजूदा हिन्दी माध्यम के सरकारी विद्यालयों में ही सामान्य अंग्रेजी व अंग्रेजी व्याकरण पर आधारित कक्षाएँ अलग से चलाने की व्यवस्था की जाती, जिनमें विभिन्न वाद-विवाद, सेमिनार, समूह चर्चा (ग्रुप डिस्कशन) आदि के जरिए छात्रों को अंग्रेजी में संवाद व बातचीत आदि का अभ्यास कराया जाता। यदि शिक्षकों की कमी है तो तदर्थ या दैनिक वेतनभोगी शिक्षकों की अलग से अस्थायी नियुक्ति की जा सकती थी।

कम से कम इन विद्यालयों को अलग से स्थापित करने में लगे खर्च व कवायद से तो कम ही होता। यह दुर्भाग्य ही है कि हमारे देश की प्रगति में आधे से अधिक रुकावटें इसी कारण हैं कि यहाँ प्राथमिक, उच्च व तकनीकी शिक्षा, सत्ता, प्रशासन, कानून, वाणिज्य, कारपोरेट जगत आदि क्षेत्रों में माध्यम हिन्दी या क्षेत्रीय भाषाएँ नहीं बल्कि एक विदेशी भाषा है, जिसके जानने वाले देश में केवल 4-5 प्रतिशत हैं। यदि ठीकठाक अंग्रेजी बोलने-समझने वालों को भी जोड़ लिया जाए तो भी यह प्रतिशत 15-16 से अधिक नहीं है। यानि 80-85 प्रतिशत देशी भाषा-भाषियों पर यह अंग्रेजीपरस्त मानसिकता से ग्रस्त वर्ग अपना वर्चस्व आज भी बनाए हुए हैं और नहीं चाहता कि उसके वर्चस्व पर कोई आँच आए, इसलिए हर क्षेत्र में अंग्रेजी को अनिवार्य बनाने का हठ पाले रहता है।
निजी क्षेत्रों में तो स्थिति और भी गंभीर है, जहाँ भर्तियों के दौरान ‘‘गुड कम्युनिकेशन स्किल्स’’ (जिसका मतलब केवल धाराप्रवाह अंग्रेजी में बातचीत समझा जाता है) पर सबसे पहले जोर दिया जाता है। फिर भले ही अभ्यर्थी को अपने विषय की कितनी ही अच्छी जानकारी हो, लेकिन यदि अंग्रेजी नहीं आती, तो वह एक स्वर में नाकारा मान लिया जाता है। मैंने अपने कैरियर के शुरुआती दिनों में यह स्वयं देखा है जहाँ साक्षात्कार के दौरान हिन्दी में एक वाक्य बोलने पर ही बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है।

हालांकि अब नई शिक्षा नीति में भी भारतीय भाषाओं को वरीयता देने पर जोर दिया जा रहा है, लेकिन इसके परिणाम कुछ समय बाद ही दिखाई देंगे। परन्तु उत्तराखंड के हमारे नीति-नियंताओं को इतना तो समझना होगा कि मात्र अंग्रेजी माध्यम के बल पर हम छात्रों को सर्वज्ञाता बनाने का सपना नहीं पाल सकते, यह अटल उत्कृष्ट विद्यालयों के परीक्षा परिणामों के जरिये स्पष्ट दिख भी रहा है।
असल में हिन्दी व क्षेत्रीय भाषाओं को असली खतरा अंग्रेजी भाषा से इतना नहीं, जितना अंग्रेजियत प्रधान मानसिकता से है। यह मैकाले की शिक्षा प्रणाली का ही परिणाम है, जिसके कारण चन्द (4-5 प्रतिशत) अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोग इस देश के भाग्यविधाता बन गए, जो हर चीज को पश्चिमी नजरिये से देखने के आदी थे; और शेष जनता को गूंगे-बहरों की तरह देश की उन्नति में योगदान देने से वंचित कर दिया गया। अंग्रेजी न जानने वाली जनता गुलामों की तरह इन मुट्ठीभर लोगों की कृपा पर जीने लगी। देश को उन्नति के शिखर पर ले जाने का उसका आत्मविश्वास खत्म हो गया।
याद कीजिए लाॅर्ड मैकाले का 1835 में ब्रिटिश संसद में दिया हुआ बयान, जिसमें उसने कहा था, ‘‘मैं भारत के कोने-कोने में घूमा हूँ। मैंने यहाँ के गाँव-गाँव में इतने गुणवान, चरित्रवान और नैतिक लोग देखे हैं। यहाँ हर 2000 की आबादी पर एक गुरुकुल है, जहाँ बच्चे वैदिक गणित, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, दर्शनशास्त्र, खगोल विज्ञान, धातुविज्ञान जैसे 18 विषय पढ़ते हैं। भारतीयों की असली ताकत उनकी यही आध्यात्मिक और सांस्कृतिक रीढ़ है। मेरा मानना है कि हम जब तक उनकी इस रीढ़ को नहीं तोड़ देते, तब तक उन्हें पूर्ण रूप से गुलाम नहीं बना सकते। इसके लिए हमें उनकी भाषा, संस्कृति और शिक्षा व्यवस्था को नष्ट करना होगा। उन्हें यह विश्वास दिलाना होगा कि जो कुछ भी पश्चिम का है, वही श्रेष्ठ है। इसके लिए हमें अंग्रेजी और अंग्रेजियत पर आधारित शिक्षा प्रणाली लागू करनी होगी। हमें शासन चलाने के लिए ऐसे क्लर्कोंं को तैयार करना होगा, जो तन से तो भारतीय हों पर मन और बुद्धि से पूरे अंग्रेज हों। इस तरह भारतीयों को पूर्ण रूप से मानसिक गुलाम बना कर ही हम भारत पर आसानी से शासन कर सकते हैं।”

और यही हुआ। आज देश में केवल यही 4-5 प्रतिशत अंग्रेजीपरस्त वर्ग सत्ता, प्रशासन व अन्य उच्च क्षेत्रों में अपना वर्चस्व बनाए हुए है। इनमें अधिकांशतः राजनेता, बुद्धिजीवी और ब्यूरोक्रेट शामिल हैं जो हिन्दी व भारतीय भाषाओं को हिकारत की दृष्टि से देखते हैं। ज्ञातव्य हो कि यूपीए सरकार द्वारा गठित राष्ट्रीय ज्ञान आयोग के अध्यक्ष सैम पित्रोदा ने प्राइमरी कक्षा से ही अंग्रेजी को अनिवार्य बनाने का सुझाव दिया था। जबकि यह सर्वमान्य तथ्य है कि बच्चों को प्राथमिक शिक्षा उनकी मातृभाषा में ही दी जानी चाहिए। कोठारी आयोग तथा शिक्षा के लिए गठित कई अन्य आयोगों का भी यही मानना था। वर्तमान सरकार भी इसी सोच को नयी शिक्षा नीति में लागू करने का प्रयास कर रही है। लेकिन अंग्रेजीपरस्त वर्ग को तरक्की की सीढ़ी केवल अंग्रेजी और अंग्रेजियत में ही नजर आती है। सैम पित्रोदा भी इसी वर्ग से हैं। यह वही सैम पित्रोदा हैं जिन्होंने 3-4 वर्ष पहले एक सम्मेलन में एक वक्ता के हिन्दी में बोलने पर खेद प्रकट किया था। इसी मानसिकता के कारण तमाम आयोगों की सिफारिशों को रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया। लोकसेवा आयोग द्वारा आयोजित सी-सेट परीक्षा में भी ‘बोधगम्यता’ के मूल अंग्रेजी प्रश्नों के अटपटे हिन्दी अनुवाद देने के पीछे भी यही मानसिकता काम कर रही है, जिसमें हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाओं के प्रतियोगियों को बाहर का रास्ता दिखाने का सोचा-समझा ‘षड्यंत्र’ साफ दिखाई देता है। पूर्व सैन्य अधिकारी आर. विक्रम सिंह ने इस पर लिखा था – ‘‘अंग्रेजी का वर्चस्व बनाए रखने का यह दुष्प्रयास सबके सामने उजागर हो गया है।’’

कोई भी राष्ट्र मातृभाषा की उपेक्षा कर, केवल विदेशी भाषा पर आश्रित रहकर तरक्की नहीं कर सकता। जिस देश में धाराप्रवाह विदेशी भाषा बोलना ही योग्यता का मापदण्ड माना जाता हो; जिस देश में प्रजा अपने राजा की भाषा न समझ सके, उस देश की तरक्की में रुकावटें आएंगी ही। ऐसे में हमारे नीति-नियंताओं को समझना होगा कि राष्ट्रभाषा या मातृभाषा को उनका उचित स्थान दिलाने से ही देश सही मायनों में तरक्की कर सकेगा, विदेशी भाषा में रट्टू तोता बनाने से नहीं। इसलिए अंग्रेजी माध्यम के नाम पर नए-नए प्रयोग करने के बजाय अंग्रेजी को केवल भाषा या विषय के रूप में ही ढंग से पढ़ाया-सिखाया जाए, और बाकी विषयों को हिन्दी या क्षेत्रीय भाषा में ही रखा जाए तो छात्रों के लिए भी बेहतर होगा और सिस्टम के लिए भी।

लेखक

शलभ सक्सेना

लेखक प्राइवेट नौकरी करतें हैं। पत्र-पत्रिकाओं के लिए लिखते रहतें हैं।

लेखन के अतिरिक्त, घूमना, पढ़ना, फोटोग्राफी भी लेखक के शौक है।

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